Spirtual cover art

가사

ना मैं ये देने–लेने वाला शरीर, ना नसों में गूँजता कोई अधीर। ये हड्डियाँ, ये सांस — बस एक पड़ाव, पर क्या यही हूँ मैं? दिल खुद से पूछता हर बार। जब आँख बंद हो, तो कौन देखता है? जब विचार रुके, तो कौन बोलता है? अगर मन भी मौन हो जाये, तो कौन है जो मौन को जानता है? ना मैं शरीर हूँ, ना मैं बुद्धि हूँ, ना ये मन, जो हर क्षण बदलता हूँ। मैं तो बस साक्षी हूँ — शुद्ध चेतना, अहंकार की आवाज़ दूर जाता सा। शून्यता में छिपी जो एक रौशनी, वही हूँ मैं— न शुरुआत, न अंत कहीं। धड़कनों से परे, सांसों से परे, अंतर्यामी शांत, सदा खरे। जब सब मिट जाये — ध्वनि, रूप, विचार, तभी मिलता है अपना असली सार। मैं साक्षी, मैं चेतना, मैं प्रकाश, बिना नाम–रूप, मैं ही हूँ निवास।